सुलगते सरोकार-----------मजबूर गाजियाबादी
कल दिल्ली पुलिस और वकीलों के संघर्ष ने साबित कर दिया कि देश की सियासत जिस भीडतंत्र के कन्धे पर सवार हो कर सत्ता में आई थी वही तंत्रिका अब उसकी गर्दन भी नापने को तैयार हो चुकी है। देश के सत्तर सालों में यह पहली दुर्लभ घटना है। न्याय दिलाने वाले ही खुद न्याय मांग रहे हैं। इससे पूर्व देश देख चुका है कि सबको न्याय देने वाले भी न्याय मांगने को उतर चुके हैं। पूरे दिन के पुलिस प्रदर्शन के बाद भी गृह विभाग का कोई प्रतिनिधि भी प्रचंड पुलिस प्रदर्शन का सामना करने को तैयार नही हो पाया। और सारी जिम्मेदारी अधिकारियों पर ही डाल दी गई थी। यह भी सच है कि जो रियासत आम नागरिक को न्याय नही दिला पाती वो स्थाई नही रह पाती। पुलिस अगर बदनाम है तो उसमें उसकी भूमिका का भी बहुत योगदान है। कोई चोर आसानी से अपनी चोरी को स्वीकार नहीं करता। चोरी स्वीकार कराने तक की प्रताड़ना उसका अधिकार है मगर उसकी जान चली जाये उस हद तक उसके अधिकार उसे बिलकुल इज़ाजत नहीं देते। फिर भी एैसा हो चुका है इसीलिए सवाल भी खड़े हैं। दूसरी ओर वकीलों का एक सम्मानित पेशा है जिसमें किसी उद्दडंता का स्थान नही होना चाहिए। लेकिन फिर भी वीडियो फुटेज़ चीखते फिर रहे हैं तो तर्को की गुंजाईश बचती नही है। पुलिस और वकीलों का चोली और दामन जैसा साथ है और दोनो ही कानून की हिफाज़त के वो पहलू है जिन पर पूरे देश को नाज़ है। यह भी याद रखना चाहिए कि देश में एक एैसी और घटना हो चुकी है जब अपनी डयूटी पर मुस्तैद पुलिस जवान ने किसी मंत्री विशेष की कार को आगे जाने से रोक दिया और मंत्री विशेष को रूकना पड़ा था। इस घटना ने निश्चित रूप से देश की पुख़्ता कानून व्यवस्था को पूरे देश में साबित कर दिया था इसीलिए पुलिस जवान को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया। कानून पालन के सवाल पर हमेशा बड़े कद वालों को अगर आदर पूर्वक झुकने का सलीका आ जाता तो इस संघर्ष की नौबत नही आती। बिना निर्देश कानून पालन में एकदम गोली चलाये जाने की घटना अगर हुई है तो चिन्ता होनी चाहिए कि हम कहां जा रहे हैं? चिन्ता यह भी होनी चाहिए कि सत्ताधीश किस हद तक पुलिस बल को अपने निजी हित में प्रयोग करें? चंिूक पुलिस बल हमेशा जनता का ही सुरक्षा कवच है। विसंगतियां तब बढ़तीं है जब पुलिस बल को सत्ता अपने हित में अधिक प्रयोग करने लगती है। तब पुलिस आम नागरिक को उचित न्याय नही दिलवा पाती है और बदनाम होने लगती है। अपनी नौकरी का संकट उसे कर्तव्य विहीन कर के रख देता है। पुलिस पर तमाम आरोप आसानी से कोई भी लगा देता है। लेकिन कोई यह नही पूंछता कि उसे सिखाया किसने? यकीनन सत्ताधीशों ने ही पथभ्रष्ट किया है। वगरना हर पुलिस वाले का एक परिवार भी होता है और वो भी एक मां बाप भाई बहन के रूप में पुलिस विभाग में है। आम इंसान की तरह वह भी सुख दुख की अनुभूति करता है। कानूनी बन्दिशें उसे इतना व्यस्त रखतीं हैं कि उसे पता ही नहीं चलता कि उसके बच्चे कब कितने बडे़ हो गये होंगे? मगर कभी कभी उसका जो निर्दयी चेहरा सामने आता है तो उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ सत्ताधीशों का हाथ ही होता है। जो पुलिस कानून व्यवस्था को चाक चौबन्द रखने में चौबीस घंटों तत्पर रहती हो उसकी पीठ पर कोई मजबूत हाथ नही होता। अगर होता तो दिल्ली पुलिस की आईपीएस अधिकारी इसी पुलिस वकील उपद्रव में अपने खोये गये रिवाल्वर की रिपोर्ट और लिंगीय अभर्दता की रिपोर्ट लिखाने में खामोश नही होती? पीठ पर हाथ होता तो खुलकर सामने आती और न्याय मांगती। उसने देखा कि घायल पुलिस वालों को कोई बड़ा अधिकारी देखने तक भी अस्पताल नही जा रहा है तो उसकी हिम्मत टूट गई। यहां भी सत्ता का खौफ उसे खामोश किये हुए है। हालांकि जांच हो रही है संतोष का विषय है। किसी किसी मामले में पुलिस कर्मी को निर्दोष होते हुए भी सस्पेन्ड होना पड़ता है। पुलिस की मजबूरियां भी एैसी हैं कि जिनके दम पर ही सत्ताधीशों और नौकरशाहों को अपनी जनसेवक वाली छवि कोे सुरक्षित बनाये रखनी पड़ती है। अगर इनमें हर एक यह समझ ले कि उनका काम जनता जनार्दन के बहते आंसुओं को हर हाल में रोकना ही है। तो यकीनन बात बन सकती है। लेकिन क्या मज़ाल सत्ताशीन विभूतियां इन्हें चैन से बैठने दें। इसीलिए आज आवश्यक है कि पुलिस-वकील टकराहट प्रकरण दुबारा न हो तो सरकार को स्वतंत्र पुलिस आयोग का गठन कर देना चाहिए ताकि पुलिसबल में असहायता की भावना न उपजे। वे अपनी कार्ययोजना को जनहित और देशहित में मजबूती से स्वतंत्र रूप से बना सकें। रही वकीलों की बात तो उन्हें इस बात को समझना होगा कि उग्रता और उपद्रव उनके पेशे पर दाग़ लगाते हैं। उनका पेशा संयमी और संवेदनशील और उदार होना चाहिए। उनका पेशा उन्हें बहुत इज्जतदार बनाता है। बड़े और इज्जतदार महानुभावों को झुकने की अदा उनको और महान बनाती है। उनका पेशा आम नागरिक के आंसुओं को रोकने का काम करता है। उनसे जनता जो अपेक्षा रखती है उसमें उनको त्याग करना ही पड़ेगा। यह सब जानते हैं बिना त्याग कोई अपने घर में भी सम्मान नही प्राप्त कर सकता है। त्याग और निर्मल व्यवहारशीलता सम्मान की पहली सीढ़ी और फिर श्रेष्ठता दूसरी सीढ़ी है। सामाजिक समरसता को चाटने वाले हर वर्ग में मौजूद हैं जिनको चिन्हित कर अपने समूह की प्रतिष्ठिा बढ़ाने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि देश के गरीब, अशिक्षित, पीडित और मजदूर लोगों के आंसू पाेंछने काम किया जा सके। आज एक सवाल सरकार से पूंछा तो जा सकता है कि जिनकी बदौलत आपकी हर तानाशाही आम आदमी झेलता है तो उन घायल पुलिसकर्मियों को देखने के लिए कोई पुलिस अधिकारी या कोई सरकारी नुमाईन्दा अस्पताल तक क्यों नही पहंॅुचा? और हो सके तो सरकार से मेरे सवाल का जवाब भी मिले?
घुटनों के बल चल के आये जो पुकारे आपने?
और क्यों वही कांधे बग़ावत पर उतारे आपने?
और क्यों वही कांधे बग़ावत पर उतारे आपने?