सुलगते सरोकार----------मजबूर गाजियाबादी
सरकार ने गरीबों को सस्ती और अच्छी दवाई उपलब्ध कराने के लिए बहुत सी जेनरिक दवाईयों की दुकानों के लाईसेन्स दिये थे। यह जनता की बहुत पुरानी मांग भी थी। आखिर फिर एैसा क्या हुआ कि वे दवाईयों की दुकानें अचानक बन्द होनी शुरू हो गईं और आज जो दुकाने चल भी रही हैं उन पर बहुत कम क्यों दवाईयां मिल रही हैं। कम दवाओं की उपलब्धता पर कोई दुकानदार अपना मुंह नही खोल रहा है और दवा-सप्लाई सिस्टम पर ही ठीकरा फोड़ कर साफ बचता दिखाई दे रहा है। सूत्रे ने जानकारी दी है कि लाल फार्मेसी चलाने वाले एक ठग ने भी गरीबों के नाम पर ठगी की है जिसके कारण जेनरिक दवाओं का मिलना मुश्किल हो गया है। उसने जेनरिक दवाओं के नाम पर कई लाईसेन्सों पर कब्जा कर एक छत्र अपना राज कर लिया और काफी समय तक दवाओं के अभाव में तमाम दुकाने पंगु बना दी। पता चला है वह जेनरिक दवाओं का आर्डर ही नही भेजता था जो अन्य दवाओं की आपूर्ति हो पाती। जो स्टॉक आ चुका था उसे ही बेचने निकालने में लगा रहता था। और दोष सप्लाई को दिया जाता था। उसकी साजिश के कारण ही शहर के गरीब गुरबों को सभी जेनरिक दवायें उपलब्ध नही हो सकीं। हम पूरा दोष लाल फार्मेसी के संचालक को ही नही दे सकते। क्या लाईसेन्स प्रदान करने वाले अधिकारी दूध पीते बच्चे थे? जिन्होने पूरी जांच पडताल करने में क्यों उदासीनता बरती? प्रधानमंत्री की महत्वकांक्षी योजना पर मुख्य और प्रमुख चिकित्सा अधिकारियों का घ्यान केद्रित क्यों नही रहा इसका जवाब शहर के गरीबों को मिलना चाहिए। जिनकी वज़ह से गरीबों को आज अपने बीमारो के लिए मंहगी दवाईयां खरीदनी पड़ रही हैं। शहर में ब्रान्डेड दवाईयों का एक बड़ा बाज़ार है और जहां अनेक होल सेलर मौजूद हैं। सरकार की ओर से जेनरिक दवाओं का एक भी होल सेलर क्यों नहीं है? ताकि आम नागरिक को जेनरिक दवाईयां आसानी से मिलतीं रहें। यह सवाल तो बनता है? सवाल एक और भी है कि क्या ब्रान्डेड दवाईयों के व्यापार पर सरकार का अंकुश है? लगता है कि बिलकुल नही है। इस व्यापार में लगभग पचास प्रतिशत से अधिक का शुद्व मुनाफा यह साबित करता है कि कम्पनियां ब्रान्डेड दवाईयों की मनमानी कीमत ही आम नागरिक से वसूल कर रही हैं। दवा असली होगी इसकी कोई गारन्टी भी नही देता। थोड़े बहुत समय के लिए सरकार भले ही अंकुश लगाती हो लेकिन फिर दवा बाज़ार उसी पटरी पर चलने लगता है। सरकार की नज़र तमाम व्यापार पर लगी रहती हो मगर दवा कारोबार पर सदैव मेहरबानी नज़र आती रही है। ब्रान्डेड दवा के कारोबार में पीपरमेन्ट का बड़ा काला कारोबार होता है जो आज तक कभी पकड़ा नही गया। कभी पकड़ा गया भी होगा तो भारी रिश्वत के आवरण में दबा दिया गया होगा। पीपरमेन्द का काला कारोबार कश्मीर से जुड़ा है जो सराकर को भारी चूना लगा रहा है। सरकारी कारकुन कबूतर की तरह आंख बन्द करे बैठे हैं। मेरा विनम्र निवेदन अपने जिलाधिकारी महोदय से यह है कि वे व्यक्तिगत रूचि लेकर शहर के तमाम गरीब लोगों को सभी जेनरिक दवाईयां किस तरह उपलब्ध हों उसका कोई ठोस उपाय करें । यह प्रकरण केवल जिले के चिकित्सा अधिकारियों पर छोड़ना अब पुनः नादानी साबित हो सकता है। शहर में सबसे पहले जेनरिक दवाओं का होलसेल काउन्टर स्थापित कराया जाये ताकि दवाओ की उपलब्धता सहज हो सके। उसके बाद जेनरिक दवाओं के लिए पूरी जांच पडताल के बाद शिक्षित बेरोजग़ारों को ही दुकाने दी जायें ताकि वे ईमानदारी से गरीबों की सेवा कर सकें। सच में यह गरीबों की सेवा ही है। इसमें अगर पूंजीवाद को जगह दी जायेगी तो यकीनी रूप से यह बड़ी सेवा का स्वरूप नही ले पायेगा। और यह तय है कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था पर चल रही ब्रान्डेड कंपनियां जेनरिक दवाओं को बड़ा बाज़ार कभी बनने नही देंगी। और गरीबों के लिए जेनरिक दवाओं की उपलब्धता वाली दिल्ली और भी दूर हो जायेगी। मुझे यकीन है जिलाधिकारी महोदय इस प्रकरण का स्वतः संज्ञान लेंगे और जिले के गरीब गुरबों के हक़ पर डाका डालने वाले लोगों को सख़्त कानूनी कार्यवाही के दायरे में लायेंगे। एक छंगी के साथ-------
शब्दों को सवालों की नज़ाकत कौन देता है?
जो अच्छे लोग हैं उनको शरापफ़त कौन देता है?
यह दुनियां है यहां नेकी बदी रंहती है ज़हनों में,
किसी का हक़ हडपने की इज़ाजत कौन देता है?
जहां होंगे वहीं पर रोशनी, बांटेंगे बुझने तक,
चिराग़ों को उजालों की नसीहत कौन देता है?