सुलगते सरोकार------------मजबूर गाजियाबादी
जब से रिज़र्वबैक ने पंजाब महाराष्ट्र बैंक के अपने ग्राहकों को धन निकासी पर सशर्त रोक लगाई है उससे पूरे देश के लोगों में एक बेचैनी देखी जा रही है। एक तो नोटबन्दी ने पहले ही बैंक की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया था। उसके बाद अनेक बैंक भी आरोपों के घेरे में रहे जिससे बैंकों का नैतिक मूल्य आम जनमानस में घटा है। यह बात और है कि सरकार ने बैंकों की पीठ पर अपना एक हाथ रखा हुआ है और दूसरा बड़े कारोबारियों की पीठ पर। आम जनता तो कल भी असहाय थी और आज भी असहाय है। उसे आज भी आसानी से बैंक कर्ज नही देता। अगर देता भी है तो उससे गूलर के फूल लाने जैसी असंभव शर्त लगाई जाती है। असल में भारतीय बैंको ने अपनी उपयोगिता और सार्थकता पर सवाल खुद ही खडे़ करवा लिये हैं। उन्होने अपने काम में पारदर्शिता नहीं बरती। करोड़ों का कर्ज़ लेने वालों पर कभी कड़े तेवर नहीं अपनाये और मामूली कर्जदार को रिकवरी न होने पर जेल भेज दिया या उसका मकान हडप लिया। नोटबंदी के दौरान अपने नोट बदलवाने की लाईन में पूरा पूरा दिन लगे रहने वाले आम आदमी ने उस समय अपने संयम का महान परचिय दिया था। लेकिन वही सहन शक्ति आज भी बरकरार है इस पर संदेह हो रहा है। संदेह इस लिए कि आज मंदी के वातावरण में आम आदमी के सामने विकट हालात हैं। और आम लोगों में आज भी यही भावना भरी है कि बैंक पूंजीपतियों की रखैल है। वे जब चाहे उन्हें धन सुलभ हो जाता है। पिछले दिनों जब सरकार ने रिज़र्व बैंक से निकाली राशि को मंदी दूर करने में लगाने की बात कही थी तो बड़ा आश्वास्त था। लेकिन वक्त के साथ ही उसकी सारी उम्मीदे चकना चूर हो गईं। वह जहां खड़ा था उससे भी और नीचे खिसक गया।
भारतीय बैंको में आज एक नई साजिश का आभास हो रहा है। सुबह होते ही अपने खाते से पैसे निकालने वाले लोग शाम तक कतारों में खड़े रहते हैं और बैंक का सर्वर डाउन बता दिया जाता है। कुछ वापस चले जाते हैं और जो रूकने का साहस कर लेते हैं उन्हे भुगतान मिल भी जाता हैं। मजे की बात यह कि जमा काउन्टर पर रूपये जमा होते रहते हैं मगर रूपये निकालने वाले काउन्टर पर ज़रूरतमंद खडे़ खडे़ तमाशा चुपचाप देखते रहते है। उनकी परेशानी को देखते हुऐ पूर्व की अंकन विधि (मैनुएल सिस्टम) द्वारा पैसे देने का कोई साहसिक प्रयास नही किया जाता। आखिर क्यों? क्या बैंक आम लोगों की आवश्यता को महत्वहीन समझता है? कितनी बड़ी लाचारी है कि आदमी आज भी अपना पैसा ज़रूरत के समय नही निकाल सकता। इसी पीड़ा से व्यथित महाराष्ट्र में एक व्यक्ति का देहान्त हो गया जिसके बैंक में नब्बे लाख रूपये जमा थे। इसी क्रम में अन्य भी एक दो लोगों की सदमें से मौत की खबर आ चुकी है। कल्पना करिये अगर देश में एक दो दिन के लिए इंटरनेट सेवा ही बंद हो जाये तो बैंको का क्या रवैया रहेगा? लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी? कहना बहुत मुश्किल है। अब तो बैंक रजिस्टर के द्वारा भुगतान का पुनः चलन भी संभव नही दिखाई देता। क्योंकि एैसे लोग तो अब काफी सेवानिवृत हो चुके होंगे और नई पीढ़ी को रजिस्टर लिखने का अनुभव नही। फिर निदान कहां है? सरकार को अब कोई वैकल्पिक निदान ढूंढना चाहिए ताकि आम लोगों को परेशानी से जूझना न पडे़। अन्यथा एक बात तो निश्चित है कि अब देश के लोग अपनी जमापूंजी को चाहे जमीन में गाडनी पडे़ या पोटली में बांधकर पेड़ पर लटकानी पडें। वे बैंको की तरफ कभी नही आयेगें। जमीन में दबाया गया धन चाहे सड़ जाये लेकिन बैंक में कभी जमा नही करेंगे। इस सच्चाई को समझकर सभी भारतीय बैंक अपनी जिम्मेदारी को समझें और अपने आप को बदलें। और इस बात को भी गम्भीरता से लें कि पैसा जरूरत के लिए ही होता है। अगर पैसा ज़रूरत के समय काम नही आया तो उस पैसे का क्या मतलब होता है? हां मतलब होता है तो केवल बडे़ कारोबारियों के लिए। यह हुनर उन्ही को आता है कि रखे हुऐ पैसे से पैसा कैसे कमाया जाये? देश की अधिकांश गरीब जनता इस कारोबारी बीजगणित को आज तलक नही समझ पाई है। जिस दिन समझ लेगी उस दिन देश में पूंजीपति उंगलियों पर नही गिने जा सकेगें। समय है सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए हर नोट पर लिखे गर्वनर के वाक्य को एक बार और पढ़ना चाहिए जिसमें बताया गया है कि नोट धारक की इच्छा अनुसार उसे तुरन्त भुगतान करना वचनबद्वता है जो अति आवश्यक है। और आपकी इच्छा अनुसार भुगतान कभी मान्य नही हो सकता चूंकि यह गैर कानूनी होगा। हर इंसान तो मेरे जैसा संतोषी नहीं हो सकता। एक शेर के साथ------
ज़रूरत अपनी मुट्ठी में हमेशा क़ैद रखता हूॅ? मेरा ईमान मेरी रूह को आज़ाद रखता है?
बैंक की कतारें कह रही हैं कि सर्वर डाउन है?