मजबूर गाजियाबादी
अपनी फ़ुरसत को करीने से सजाते रहिऐ।
हो सके रोज ही इक पेड़ लगाते रहिऐ।
जिनके अस्तित्व पर निर्भर हैं हमारी सांसें,
उनकी खा़तिर भी ज़रा वक्त लगाते रहिऐ।
बिन मांगे ही जो देते हों बहुत कुछ हमको,
एैसे दाताओं की फैहरिस्त बढ़ाते रहिऐ।
घुट के रह जाऐं न सीमेन्ट के घरौंदों में,
वर्ना झोंकों को झरोखों से बुलाते रहिऐ।
कफ़न फ़रोश क्या समझें लिब़ास की कीमत,
जमीं के सब्ज़ पैरहन को बचाते रहिऐ।
बुलन्द कर दिया कितना हमें तरक्की ने,
कि उखड़ रही हैं ज़डें इनको जमाते रहिऐ।
लगा है दॉव पे जीवन महज़ तिज़ारत से,
वक़्त गुज़रा तो फिर सर को खुजाते रहिऐ।
कल न बचपन कहीं जीने की अदा को तरसे,
बारहा सबको मेरे यार जगाते रहिऐ।
हिन्दू मुसलिम का नही सिक्ख इसाई का नही,
ये फर्ज़ सबका है सब लोग निभाते रहिऐ।
माना मजबूर कि ऑगन ही नहीं हैं जिनके,
शहर तमाम उन्ही का है जताते रहिऐ।
इल्तिजा़ बस ज़रा सी है सुनो शहर वालों,
जहां उग जाऐ वहीं पेड़ लगाते रहिऐ।
बस्तियां बाग़ सी लहराऐं तो घटा बोले,
जिन्दगी बॉसुरी है सुर में बजाते रहिऐ।
मजबूर गाजियाबादी
बस्तियां बाग़ सी लहराऐं तो घटा बोले....