आज रिलांयस जैसे कुबेर तो साग सब्जी भी बेचने पर आमादा हैं

सुलगते सरोकार----------मजबूर गाजियाबादी
बरसों पहले बाज़ारबाद की चमक ने मुगल नवाबों की आंख की रोशनी छीन कर उन्हें एैसा अंधा बना दिया था कि धीरे-धीरे सारा का सारा हिन्दुस्तान ही गुलामी की जंज़ीर में जकड़ा गया था। उन गुलामी की जंज़ीरों को काटने में कितने दिन लगे,कितनी जानें गईं इसका कोई हिसाब किताब आज किसी राजनेता के पास भी नहीं है। कहा जाता है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। वक्त बदल रहा है। वर्ष 1991 में पारित आर्थिक उदारीकरण ने देश के आम गरीब लोगों और देश के छोटे बड़े किसानों को सूली पर चढ़ जाने को विवश कर दिया है। एक बार फिर वही बाज़ारवाद की वैसी ही काली आंधी का आभास होने लगा है जिसे मुगलों ने अंग्रेजो को सादर आमंत्रित किया था। यकीनन लगने लगा है कि हम फिर एक बार और गुलाम होगें और फिर उस गुलामी से मुक्ति अब संभव नहीं होगी। हालांकि देश के सत्तर प्रतिशत लोग आज भी वैसी ही गुलामी की जिन्दगी जी रहे हैं जो बहुत ही गरीब हैं। न तो उनकी कही सुनवाई होती है और न उनकी कोई बात सुनता है। क्योंकि बाज़ारवाद हावी है। पूंजीपतियों की ही सब जगह बात सुनी जा रही है। सरकार उनके लिऐ ही योजनाऐं बनाती है और उस योजना को पूरी करने में चाहे कितने ही गरीब देशवासियों की बलि तक चढ़ानी पड़े,सरकार कोई भी हो कभी पीछे नहीं हटती। क्योंकि उन्हे सत्ता की कुर्सी पर तो यही लोग बिठाने में आर्थिक सहायता करते हैं। पीछे तो बस गरीब को ही हटना पड़ता है। गरीब लोगों की जमीन का ज़रा सा टुकड़ा भी उनकी आंखों में अखरता है। इसी का नतीजा है कि पुलिस अमीर को सर और गरीब को साले कह कर पुकारती है। संभावित बाज़ारवाद की काली आंधी आने की "ाुरूआत तो काफी पहले से ही हो चुकी है। आप हैरान न हों। आज रिलांयस जैसे कुबेर तो साग सब्जी भी बेचने पर आमादा हैं तो बाहर से आने वाले कुबेर केवल धनियां बेच कर तो काम चलायेगें नहीं। सच तो यह है कि बाजा़रवाद के हिमायतियों को देश के किसानों की आत्म निर्भरता बिलकुल रास नहीं आ रही है। उसे किसी न किसी रूप में उस जमीन से उखाडने की ही कवायद की जा रही है ताकि विकास के झुनझुने के कोलाहल में उसकी चीख दब कर रह जाये। विकास के नाम पर बिछी शतरंज में किसान तो केवल एक मोहरा है,असली चीज़ तो उसकी जमीन है जिस पर विकास का ढांचा खड़ा होना है। सूत्र बताते है कि विकास की बेसुरी ढोलक बजाने वालों ने खेती की जमीन पर जो कंक्रीट के करोड़ों घरौंदे बना दिये है वो आज तक भी खाली पड़े है और आगे बीस साल तक भी उनमें कोई रहने वाला भी नहीं आयेगा। यह भी तय है कि उन गगन चुम्बी बस्तियों में स्पीकरों से मचा कोलाहल तो सुनाई देगा मगर वास्तविक सुखी सामाजिक कोलाहल की गूंज यकीनन नदारद रहेगी। जिन किसानों की जमीने विकास के नाम पर लेकर उन्हें बेराजगारी में धकेला गया था आज वे खून के आंसू इस लिऐ रो रहे हैं कि आज उनके पास दिया गया पैसा भी नही रहा और जमीन पहले ही चली गई। किसी करोबार की समझ न रखने वाले किसानों के बच्चों ने मुआवजे की रकम को बरबाद कर दिया और आज वे अभावग्रस्त जिन्दगी जी रहे हैं। विकास के झुनझुने की रकम ने कई किसानों के बच्चो को बर्बाद करने,उन्हे अपराधों की ओर धकेलने तथा तबाह करने का काम ही किया है। सवाल यह कि सरकार ने किसानों को बेरोजगार करने से पहले उन्हे समुचित स्वावलम्बन की दिशा क्यों नही दी। क्या किसान के प्रति सराकर का कोई नैतिक दायित्व नही था। इतना सब कुछ होने के बाद भी सरकार अब भी विकास का बेहतरीन भजन सुनाऐ जा रही है और निरंतर पूंजीवादी व्यवस्था के पालन पोषण का काम कर रही है। अस्तु-----। अब कम से कम सरकार से इतना तो पूॅछा जाना चाहिऐ कि विकास के नाम पर छलकपट से ली गई जमीनों पर जो कंक्रीट के जंगल बुलन्द हुऐ हैं,लम्बी चौड़ी सड़कें बनी हैं,बड़े-बड़े राजमार्ग बने हैं जिन पर मंहगी कारें बडे़ लोगों को ढोती हुई रेस लगाने में जुटी हैं। इस विकास के खाके में देश का आम आदमी कहां खड़ा है? आपके विकास की सबसे ऊंची मंजिल पर आखिरी ईंट लगाने वाले उस मजदूर का स्थान कहां है? देश की जनता को जवाब मिलना चाहिऐ। अन्यथा हम यह समझने में कतई भूल करने वाले नही कि जानबूझ कर सरकार बाजा़रवाद के दलालों की आरामग़ाह बनाने कि लिऐ ही गम्भीरता से काम कर रही है। रही देश के आम आदमी की बात तो वो किसी न किसी दिन इन्ही राजमार्गो के बीच टायरों से कुचल कर मरता रहा है और मरता रहेगा। एक शेर के साथ------------
एैसी मनहूस सियासत में ही जीना होगा? 
दाम मेहनत का जहां सिर्फ पसीना होगा?